मेरा भी तो संडे है
केवल तुम ही क्यों हो भाई, मैं भी तो इंसान हूँ.
मेरे भी अरमान हैं, मेरा भी घर-बार है,
बीवी-बच्चे, मम्मी-पापा, मेरे भी तो पास हैं.
इंतज़ार वो भी करते हैं, उम्मीदें वो भी रखते हैं,
सोमवार से शनिवार तक, वो भी तो चुप रहते हैं.
पर जब संडे आता है, और मेरा सॉरी सुनते हैं वो,
कहते चाहे कुछ भी नहीं पर, मन में शिकायत करते हैं.
मैं जानता हूँ, ठीक नहीं ये, फिर भी चल देता हूँ मैं,
अगले संडे पक्का है, ये झूठा वादा करता हूँ मैं.
दम फूल रहा है, हाँफ रहा हूँ, उखड़ रही हैं साँसें मेरी,
यही सोचकर दौड़ रहा हूँ, थोड़ा रस्ता और बचा है,
बस इस अगले मोड़ के आगे, रेस खतम ये हो जाएगी,
फिर तो संडे रोज़ मनेगा, दूर मुश्किलें हो जाएँगी.
लेकिन अगले मोड़ के आगे, फिर होता है इक और मोड़
उम्मीदों के दामन में फिर, लग जाते हैं कितने जोड़
रोज़-रोज़ मैं होता जाता, थोड़ा-थोड़ा और भी बूढ़ा,
बढ़ता जाता मेरी आँखों में मेरे सपनों का कूड़ा,
संडे की उम्मीदें पाले, गुज़र रहा है जीवन सारा
मौत के कदमों की आहट ने और बना दिया बेचारा
जीवन के इस कैलेन्डर में छ: दिन का हफ़्ता था मेरा
केवल आखिरी पन्ने पर,
साल के आखिरी महीने में,
सबसे आखिरी हफ़्ते में
हफ़्ते में सबसे नीचे,
वो जो अपना आखिरी दिन है
शायद वही एक संडे है…
शायद वही एक संडे है…
शायद वही एक संडे है.
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प्रणाम!!!
आपका
पवन अग्रवाल
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1 Comment
nice