बड़ा धारदार है ‘उधार’!
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लाठी

गर्मी की दोपहर में गली सन्नाटे की चार ओढ़े सुस्ता रही थी. बिमला भी सब काम-धाम निपटाकर अपनी झोंपड़ी की चारपाई पर पड़ी उनींदी सी हो रही थी. अचानक कहीं दूर से कोलाहल सुनाई देने लगा जो बढ़ता गया. कुछ नारेबाजी, कुछ बच्चों की चिल्लाहट, कुछ अधीर सा करने वाला शोर था. बिमला उठी और किवाड़ हटाकर देखने लगी. लगभग तीस-चालीस लोगों का जत्था चला आ रहा था. कुछ बाहर के लोग, कुछ अपने ही मोहल्ले के जाने-पहचाने चेहरे. बिमला समझने की कोशिश कर रही थी कि मांजरा क्या है. उम्र बढ़ जाए तो चीज़ें समझने में वक्त भी थोड़ा ज़्यादा लगता है. पर वो कुछ समझ पाती, इससे पहले भीड़ में से उसका भतीजा रामू निकलकर आया और बिमला को किनारे कर, घर में घुस गया और दीवार पर टंगी दुर्गाजी की पुरानी सी फोटो उतार ली. ‘का हुआ रामू?’ बिमला का सवाल जैसे रामू को पहले से पता था, उसके पूछते ही रामू तैश में कुछ हाँफता हुआ सा बोला – ‘अब हमें इनकी गुलामी नहीं करनी, अपनी मेहनत करके, अपना पसीना पी के जीये हैं और जीयेंगे काकी.’ बिमला कुछ समझी नहीं – ‘अरे का बोल रहा है, और ये माताजी की फोटो कहां ले जा रहा है?’ रामू बोला – ‘हम दलितों के घर में अब किसी देवी-देवता का कोई काम नहीं, बहुत हुआ…’ कहते हुए रामू बाहर जाने लगा. बिमला ने फोटो को पकड़ लिया – ‘इसको छोड़ दे बेटा…’ पर फोटो बिमला के हाथ से फिसल गई. रामू ने फोटो एक कुर्ता-पजामा पहने आदमी को दे दी, जो शायद कोई नेता था. उसने अपने काले चश्मे से हिकारत भरी निगाह से फोटो को देखा और उसे नीचे इस तरह झटके से फैंका, कि उसका काँच ज़रूर टूटे. बिमला सकते में आ गई! सबकुछ इतना अचानक हो गया कि वो समझ ही नहीं पाई कि क्या हो रहा है. नेताजी ने बिमला से ठंडी आवाज़ में कहा – ‘बहन, आज से पूजा-पाठ बंद, अपने हाथों से अपनी तकदीर लिखिए…’

भीड़ आगे बढ़ गई. बिमला डेल पर ही बैठ गई. जिस फोटो को वो इतना संभालकर रखती थी, वो आज उसके सामने रास्ते पर टूटी पड़ी थी. जब भीड़ कुछ दूर चली गई तो उसने चोर नज़रों से आसपास देखकर उस टूटी हुई फोटो को उठा लिया. अपने मैले से आँचल में छुपाए उसे घर में इस तरह ले आई, जैसे वो कोई चोरी का सामान हो. अपनी चारपाई पर फोटो को रख वह ज़मीन पर अपराधियों की तरह बैठ गई. टूटे हुए काँच के पीछे से मुस्कुरा रही दुर्गा माँ को देखकर उसके हाथ बरबस जुड़ गए. ग्लानि भाव से भरी बिमला को रोना आ गया. वो बरसों से उस फोटो की पूजा करती आई थी. हालाँकि उसे कभी कोई चमत्कार दिखा तो नहीं, पर उसे चमत्कार की उम्मीद भी कब थी? पहले पति और फिर बेटे की मौत के बाद वो घर में अकेली थी, पर उसे कभी अकेलापन नहीं लगा, क्योंकि वो अपनी दुर्गाजी से दिन में कई बार बतिया लेती थी. थाली में रोटी लेकर वो दुर्गाजी के सामने रख देती और आँख मूँदकर कहती ‘जीमो मैया’.

डूबते को तिनके का जो सहारा मिलता है, वही सहारा उसे अपनी माताजी से मिलता था. पर अब वो उनसे नज़रें नहीं मिला पा रही थी. एक अनचाहे अपराधबोध में लिपटी बिमला को लग रहा था जैसे अब वो अकेली है, असहाय है, जैसे वो फोटो नहीं, उसकी लाठी टूट गई है.

– पवन अग्रवाल

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