व्यंग्य, हास-परिहास, मज़ाक, हँसी, ठिठोली, गुदगुदी, चुटकी… ये सब एक तो नहीं, पर बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं. ये सभी कहीं न कहीं हमारी ज़िन्दगी के बोझ कम करते हैं, हमारी झंझटों को कुछ देर के लिए दूर करते हैं, हमें जीने की ताकत देते हैं, हमें अपनी ही कमज़ोरियों और कमियों पर खुद ही हँसने की क्षमता देते हैं. हमारी मुसीबतों को अंगूठा दिखाते हुए कहते हैं कि हमें तुम्हारी परवाह नहीं. इनके सहारे हम तमाम दुखों के बीच भी थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं, जी लेते हैं.
व्यंग्य एक पुरानी और परिष्कृत साहित्यिक विधा है. शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, खुशवंत सिंह आदि कुछ ऐसे प्रमुख नाम हैं जिन्होंने व्यंग्य की विलक्षण विधा को नए आयाम दिए. चार्ली चैप्लीन भी इस विधा के वाहक रहे हैं.
व्यंग्य वास्तव में हम मनुष्यों और देश-समाज की व्यवस्था पर ऐसा कुठाराघात होते हैं, जिनकी चोट भीतर तक लगती है और हम कराहने के बजाय बस मुस्कुराकर रह जाते हैं. क्योंकि व्यंग्य में कड़वे सच को भी शहद में डुबोकर और हास्य के ऐसे कैप्सूल में डालकर दिया जाता है, जिसकी कड़वाहट हमारे चेहरे पर विद्रूपता नहीं, बल्कि हँसी लाती है.
इसी विधा में मैंने भी कलम चलाने की हिमाकत की है. अभी बहुत कच्चा हूँ, पर कभी-कभी कच्ची केरी भी मज़ेदार लगती है. उम्मीद है आपको पवन का व्यंग्यात्मक सोर पसंद आएगा. अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत ज़रूर करवाते रहिए. पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए www.pawankaresor.com
आपका
पवन अग्रवाल