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बड़ा धारदार है ‘उधार’!

उधार… ऋण… लोन… ये शब्द बड़े सरल, सुहाने और भोले लगते हैं और आम आदमी को आकर्षित भी करते हैं, क्योंकि इन शब्दों को सुनकर एक संबल, एक सहारे की अनुभूति होती है, जैसे मदद का हाथ, जैसे मँझधार में डोलती नैया के लिए पतवार, जैसे डूबते को तिनके का सहारा. पर ज़रा संभलकर! कहीं ये कोई मायावी मोहिनी तो नहीं है? कहीं आपको लेने के देने तो नहीं पड़ जाएंगे! और उधार लेंगे तो लेने के देने तो पड़ेंगे ही… और बहुत सारे देने पड़ सकते हैं… और बहुत देर तक देने पड़ सकते हैं… और ये देना आप पर बहुत भारी पड़ सकता है.

आजकल सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाले धंधों में से एक है फ़ाइनेंस का धंधा. ये धंधा पहले बनिए या सेठ-साहूकार ही करते थे, पर अब छोटी से लेकर बड़ी-बड़ी कंपनियाँ और कॉर्पोरेट घराने भी इस बहती गंगा में डुबकी लगाने कूद गए हैं.

जब से भारत में उदार अर्थव्यवस्था आई है, चीज़ें बहुत बदल गई हैं. कुछ चीज़ें तो सिर के बल, बिलकुल उल्टी ही हो गई हैं. इन्हीं में से एक चीज़ है लोन. याद कीजिए, ज़्यादा वक्त नहीं हुआ है, जब हमारे लिए एक अदद छोटा सा लोन लेना भी कितना मुश्किल होता था, चप्पल घिस जाते थे बैंकों के चक्कर काटते-काटते. पर अब देखिए, कंपनियाँ आपके दरवाज़े पर लाइन लगाकर खड़ी हैं. (इनका बस चले तो दरवाज़ा तोड़कर घुस आएं) आप बस हाँ कीजिए और पैसा आपके अकाउंट में, क्योंकि आप एलिजिबल हैं, आपकी सिबिल चेक हो गई है, आपका लोन प्री-अप्रूव्ड है. अरे! प्री-अप्रूव्ड!! पर अप्रूवल माँगा किसने था? मान न मान मैं तेरा मेहमान!

मैं अग्रवाल हूँ और हमारी कम्युनिटी को आर्थिक प्रबंधन, यानी फ़ाइनेंशियल मैनेजमेंट में माहिर समझा जाता है. और ये कहीं न कहीं सच भी है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनेक तरह के अनुभवों और सीखों को हमारे यहाँ दादाजी और पिताजी कहावतों और मुहावरों के माध्यम से हमें देते आए हैं और हमें फ़ाइनेंशियल मैनेजमेंट के गुर सिखाते आए हैं. ऐसी ही एक कहावत है ‘सस्ता ब्याज भी महंगा पड़ता है’. साथियों ध्यान दीजिए… बड़ा ही गूढ़ रहस्य छुपा है इस कहावत में. जो मेरे, आपके, सबके बड़े काम का है. ब्याज चाहे कितना ही कम हो, आखिर में वो भारी ही पड़ेगा. विश्वास न हो तो पूछ लीजिए उन लोगों से, जिन्होंने सस्ती दर के ब्याज पर लोन ले रखा है.

दोस्तों अब लोन भी इतनी किस्मों और वैराइटियों का हो गया है कि उसे उंगलियों पर नहीं गिना जा सकता है. होम लोन, कार लोन, पर्सनल लोन तो खैर थे ही, पर अब विदेश में छुट्टियाँ मनाने, घर का रंग-रोगन करवाने, टीवी-फ्रिज जैसी साधारण चीज़ें खरीदने और बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए भी लोन आसान किस्तों और मामूली ब्याज में (और कभी-कभी तो बिना ब्याज के भी) चुटकियों में उपलब्ध है. और क्रेडिट कार्ड के कुख्यात किस्से तो हमने आपने सुन ही रखे हैं.

हमारे पास आए दिन फ़ाइनेंस कंपनियों के फ़ोन आते रहते हैं – सर लोन ले लीजिए… मैडम लोन ले लीजिए. खास आपके लिए ऑफ़र है. आप कभी किसी टू-व्हीलर या फोर-व्हीलर शोरूम पर या किसी इलेक्ट्रॉनिक शॉप में जाइए, आपको फ़ाइनेंस कंपनी के लोग तैयार मिलेंगे. अगर उस चीज़ को खरीदने के लिए आपकी जेब में नकद पैसे रखे भी होंगे, तब भी आपसे कहा जाएगा कि क्यों कैश दे रहे हैं, लोन ले लीजिए. इन्टेरेस्ट मामूली है, ईज़ी इंस्टॉलमेंट बना देंगे, ईएमआई भी कम आएगी, देखते-देखते लोन पट जाएगा और आपको पता भी नहीं चलेगा. ऐसे में आप अक्सर मान भी जाते हैं, और यहीं पर आप गलती कर बैठते हैं और फँस जाते हैं फ़ाइनेंशियल मिस-मैनेजमेंट के एक बड़े कुचक्र में.

हमारे यहाँ एक और कहावत है – ‘नौ नकद, न तेरह उधार’, यानी उधार के तेरह से नकद के नौ अच्छे. इस हाथ लो और उस हाथ दो और भूल जाओ. पर ऐसा हुआ तो फिर इन बेचारी फाइनैन्स कंपनियों और बैंकों का क्या होगा?

दोस्तों, लोन बड़ा सिम्पल सा शब्द है अंग्रेज़ी का, पर हिन्दी भाषा की गहराई और चमत्कार देखिए कि इसे हिन्दी में ‘ऋण’ कहा गया है – ऋण यानी ‘माइनस’, जिसका विलोम यानी विपरीत शब्द है ‘धन’ यानी प्लस. मतलब ऋण लेना माइनस में जाने जैसा है और ऋण न लेना आपके लिए प्लस है, धन है.

अब ऐसा भी नहीं है कि लोन बिलकुल नहीं लेना चाहिए, लेना चाहिए, लेकिन लोन केवल दो ही स्थितियों में ही लेना चाहिए – एक तो तब, जब आप किसी मुसीबत में फँस जाएं, आप पर कोई संकट आ पड़े और आपके पास कर्ज़ लेने के अलावा कोई और रास्ता न बचे. और दूसरी वो सिचुएशन, जब कर्ज़ या लोन लेना आपके लिए फ़ायदे का सौदा हो. फ़ायदे का सौदा ऐसे कि अगर आपको कोई ऐसा बिज़नेस या निवेश करना हो, जिसमें आपको मिलने वाला मुनाफ़ा, उसके लिए चुकाए जाने वाले ब्याज से कहीं ज़्यादा हो, तो लोन लेने में कोई हर्ज़ नहीं. पर आजकल देखिए… लोग लोन यूँ चलते-चलते ले लेते हैं, जैसे कोई चॉकलेट या पॉपकॉर्न खरीद रहे हों. पर एक बात याद रखिए दोस्तों, लोन लेना तो आसान है, पर चुकाना मुश्किल है. लोन या उधार हमारा मित्र नहीं, शत्रु है. ये उस दीमक की तरह है, जो हमारी कड़ी मेहनत की आमदनी को भीतर ही भीतर खाता रहता है और हमें पता भी नहीं चल पाता है. अनावश्यक उधारी और उस पर लगने वाले ब्याज के चलते हमारी माली हालत ऊपर से तो अच्छी दिखती है, पर वो भीतर से खोखली होती जाती है. और एक दिन ये भरभराकर धराशायी हो जाती है. हम आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि फलाँ आदमी ने कर्ज़ न चुका पाने के कारण फाँसी लगा ली, या वह गुमशुदा हो गया. कई बार तो व्यक्ति पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है. शुरु में लॉलिपॉप की तरह दिखने वाला लोन एक दिन हँसते-खेलते परिवारों को तबाह कर देता है. ऐसे एक नहीं, हज़ारों उदाहरण हैं.

कुछ भयावह घटनाएं तो हमें अखबारों और टीवी के ज़रिए पता चल भी जाती हैं, पर सोचिए ऐसे लाखों-करोड़ों लोग भी हैं, जो भले ही ऐसा कोई दर्दनाक कदम नहीं उठाएं, पर कर्ज़ के कुचक्र में फँसे वो लोग कोल्हू के बैल की तरह रात-दिन काम करते रहते हैं, सिर्फ़ इसलिए कि वो अपनी मंथली ईएमआई चुका सकें, हर महीने लगने वाले ब्याज के कोड़े से बच सकें और वे किसी तरह से कर्ज़ के जंजाल से निकल सके. वो ऊपर से मुस्कुराकर मिलते हैं, पर भीतर से बेहद परेशान रहते हैं, चैन से सो नहीं पाते हैं. यहाँ वो कहावत लागू होती है – ‘गाय को दुहना और उसे कुत्ते को पिला देना!’

दोस्तों ये लेख कुछ ज़्यादा ही लंबा होता जा रहा है, पर मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ. थोड़ा और समय देकर इसे पढ़िए, विश्वास कीजिए, ये आपके बड़े काम आएगा.

कर्ज़ के बाज़ार में एक नया शब्द अभी-अभी प्रचलित हुआ है – सिबिल रेटिंग. सिबिल यानी आपकी साख, आपकी रीपेमेंट की क्षमता और आपके आय-व्यय का पैटर्न बताने वाला इंडिकेटर. यानी साफ़ शब्दों में कहें तो आप कहाँ तक कर्ज़ लेने लायक हैं, आप कितने ईमानदार हैं, ये सिबिल रेटिंग बताती है. इस रेटिंग का उपयोग सभी बैंकें और फाइनेंस कंपनियाँ खूब करती हैं. अक्सर आपको चेताया जाता है कि अपनी ईएमआई या क्रेडिट कार्ड का बिल समय पर भरो, नहीं तो आपकी सिबिल बिगड़ जाएगी. ये वैसा ही है कि जेल के कैदी को कहा जाए कि अगर अच्छा व्यवहार करोगे तो तुम्हारी सज़ा आसान या कम हो जाएगी, तुम एक-दो साल जल्दी रिहा हो जाओगे. सिबिल का डर दिखाने का मक्सद मूलत: यही होता है कि कर्ज़दार सीधे-सीधे चलता रहे, दाँए-बाँए न जाए और अपनी सज्जनता बनाए रखते हुए जीवन भर कर्ज़ लेने लायक बना रहे, कर्ज़ लेता रहे और कर्ज़ देने वाले कथित साहूकारों को कमा-कमाकर ब्याज चुकाता रहे.

ज़्यादा समय नहीं हुआ, अभी-अभी की बात है, हमारे पिताजी या दादाजी के समय में कर्ज़ लेना शर्म की बात होती थी. उधार माँगना व्यक्ति की अक्षमता दर्शाता था. अपना मकान या गहने गिरवी रखते समय आदमी शर्म से ज़मीन में गड़ा जाता था. जो कर्ज़ से मुक्त होता था, वह अक्सर अपनी कॉलर ऊंची करके कहता था कि मेरा बाज़ार में किसी को एक रूपया देना नहीं है.

पर अब देखिए! कर्ज़ जैसी चीज़ को भी अब उसे फ़ैशनेबल बना दिया गया है. पहले कर्ज़ देने वाले बनिए या साहूकार सफ़ेद गादी और मसनद पर ठाठ से बैठते थे, पीछे लक्ष्मीजी की फोटो लगी होती थी और साइड में एक मज़बूत तिजोरी रखी होती थी. धंधा अब भी वही है, पर गादी के बजाय चमचमाते काउंटर लग गए हैं, टेबल कुर्सियाँ बिछ गई हैं, काँच के दरवाज़ों वाले शानदार ऑफ़िस बन गए हैं. पहले सेठ की दुकान के बाहर एक पहलवान लट्ठ लिए खड़ा रहता था, अब वर्दीधारी बंदूकधारी गार्ड खड़ा रहता है. क्रेडिट कार्ड, गोल्ड लोन, मॉर्टगेज लोन, आसान ईएमआई, फ़ोरक्लोज़र चार्जेस, फ़ाइल चार्जेस, डिस्बर्समेंट, वगैरह-वगैरह ढेर सारे अंग्रेज़ी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. (कई महाशय तो खुद ही अपनी सिबिल चेक करते रहते हैं, वो भी शुल्क देकर). जाने-माने फिल्मी सितारे बार-बार टीवी पर आकर हमें कर्ज़ लेने के लिए उकसाते हैं – कहाँ खोए हो? किस नींद में हो? तुम्हारी अलमारी में रखे सोने के गहने पड़े-पड़े ‘सड़’ रहे हैं, मूर्ख हो क्या? उन्हें गिरवी रखकर गोल्ड लोन क्यों नहीं ले लेते? कब तक मकान का किराया भरते रहोगे… किराएदार कहीं के! होम लोन ले लो और मकान मालिक बन जाओ. ये अलग बात है कि उसके बाद हर महीने किराए से दोगुना ब्याज भरना पड़ेगा.

कई बार तो मैंने तथाकथित फ़ाइनेंस गुरुओं को ये भी कहते सुना है कि कर्ज़ लेते रहना चाहिए, कोई भी चीज़ नकद ले सकते हों, फिर भी लोन पर लो. इससे तुम्हारा ट्रैक रिकॉर्ड बनेगा, आगे बड़ा कर्ज़ लेने में आसानी होगी. जिस आदमी ने कभी लोन लिया ही नहीं, उसका ट्रैक रिकॉर्ड कैसे बनेगा? फिर बैंक उसे लोन कैसे देगा? यानी बैंक को वो बंदा ज़्यादा विश्वसनीय लगता है, जो ‘उधारचंद’ होता है, बजाय उसके जो अपने पैरों पर खड़ा है और जिसे कर्ज़ की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी!

बहुत से लोग तो इनकम टैक्स रिटर्न भरते समय सिर्फ़ इसलिए अपनी आमदनी ज़्यादा बताकर ज़्यादा टैक्स भरते हैं, कि उन्हें बैंक से ज़्यादा कर्ज़ मिल सके. मतलब एक्स्ट्रा टैक्स भी चुकाएंगे और ब्याज भी चुकाएंगे. आखिर ‘रामजी की चिड़िया और रामजी का खेत’ जो है!

दोस्तों, अगर हम अपने घर के बुज़ुर्गों से पूछेंगे तो वे हमेशा यही कहेंगे कि कर्ज़ मत लो, क्योंकि उनके पास जीवनभर के खट्टे-मीठे अनुभवों का निचोड़ होता है. उनसे हम हमेशा से सुनते आए हैं – सादगी से रहो, जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाओ, अपनी ज़रूरतें सीमित करो. जिससे हम चिंतामुक्त जीवन जी सकें. आज हम ऐसे युग में जी रहे हैं, जब हमारे जीवन में बहुत सी अनावश्यक चीज़ें भी आवश्यक समझी जाने लगी हैं. कपड़ों से भरी अलमारियाँ, ढेर सारे जूते चप्पल, अनेक गाड़ियाँ, महंगे स्कूल-कॉलेज, सलून, परफ़्यूम, एक्सेसरीज़, फ़ास्ट फ़ूड, कैफ़े और न जाने क्या-क्या. हम इन सबकी पूर्ति करने के लिए ओवरटाइम करते हैं, सेहत का खयाल रखे बिना. और फिर भी बात नहीं बने तो ‘लोन’ लेते हैं. और इस लोन के लिए हम अपना घर या गहने ही नहीं, अपना चैन-सुकून, अपनी सेहत और आज़ादी भी गिरवी रख देते हैं.

मारवाड़ियों में एक और कहावत है – ‘ब्याज और किराया, ये कभी सोते नहीं, ये रात और दिन चलते रहते हैं’. जब आप रात को नींद में होते हैं, तब भी आपके लोन का ब्याज चल रहा होता है. इसलिए जैसे भी हो, इसे विराम दीजिए. अपना क्रेडिट कार्ड अपने पर्स से निकालकर अलमारी में रख दीजिए. नए कर्ज़ से तौबा कीजिए और पुराने कर्ज़ों को खत्म करने की प्लानिंग कीजिए. बैंकें और फ़ाइनेंस कंपनियाँ तो ब्याज की कमाई पर ही ज़िंदा हैं, पर याद रखिए कि आपकी मेहनत की कमाई उनका घर भरने के लिए नहीं है, उस पर आपका और आपके परिवार का हक है. कर्ज़ से मुक्त रहना आपका कर्त्तव्य भी है और अधिकार भी है. इसलिए पूरी-पूरी कोशिश करें इस उधार की तेज़ धार से बचने की, ताकि आप आज़ाद रहें और सिर उठाकर जीएं.

शुभकामनाएं!

आपका

पवन अग्रवाल

(इस आलेख पर आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का स्वागत है. कृपया इन्हें नीचे कमेंट बॉक्स में देकर कृतार्थ करें. साथ ही इसे अपने मित्रों, परिजनों और परिचितों के साथ भी साझा करें. यह आलेख उन्हें भेजने के लिए इस लिंक को कॉपी करके उन्हें भेजें https://pawankaresor.com/बड़ा-धारदार-है-उधार/)

26 Comments

  1. Ashish Moyade says:

    बहुत सुंदर पवन भाई, बैंक वाले तो पहले ही परेशान है निजीकरण के भूत से और आप धंधा में पलीता लगाने में कसर नही छोड़ रहे हो। खैर, बहुत अच्छा लगा पढ़कर। सामाजिक भलाई स्पष्ट झलक रही है

    • Madan Lal Pareek says:

      डियर पवन जी बहुत सुंदर चित्रण, समाज के लिए व आगे आने वाली पीढ़ी के लिए के लिए अच्छा सुझाव, हमारे देश में ये समस्या अलग अलग लोगों में अलग अलग रुप से है जिन लोगों के पास पैसे है वो ऋण इस प्रकार से देता है कि उसका ऋण जिंदगी भर पूरा होता ही नहीं है और ऊपर से सहारा देने का ढोल भी समाज के सामने पीटते हैं। ठीक इसी प्रकार जिनके पास जमीन है वो लोग जमीन में भी भोले भाले लोगों को लूटते हैं ।
      लेकिन मुझे लगता कि इसके उल्ट में जब तक जनता इसके लिए जागरूक (तोड़) नहीं होगी तब तक ये धंधा चलता रहेगा क्योंकि इसके बारे में ढेरों कहानियां अपने दादा परदादाओ से सुनी है या फिर इसे ऐसे कहें कि अपने अपने परिवार को निजी तौर पर सुदृढ़ होना होगाभले ही एक बार के लिए अपने को निजी खर्चों को भी कम करना पड़े।
      जय हिन्द जय भारत

      जय श्री राम

    • pawan says:

      सही है भाई, जो मालिक बने बैठे हैं वो सबका शोषण कर रहे हैं, फिर क्या ग्राहक, क्या कर्मचारी। इस विषय पर भी जल्द ही लिखूँगा।

  2. डॉ. प्रवाल शुक्ला says:

    विषय की बिलकुल सटीक पकड़। अच्छा लेख।

  3. Priya says:

    Bahut badiya

  4. Mubbashar Ali says:

    Bhai Pawan, iss upyogi subject ko bade hi dilchasp andaaz mei pesh kiya hai aapne… God Bless.

  5. Komal says:

    सही कहा पवन जी

  6. Deepak says:

    Bahut badhiya likha hai Pavan haalaat yahi hai ki
    YE zindagi karzdaar ho gayee…

  7. Nilesh Jain says:

    Awesome… True reflection society and individual

  8. Mohanlal agrawal says:

    आपका लेख बहुत ही बढ़िया है लेकिन आज के माहौल में आदमियों की सोच को भी बदल दिया है अगर व्यक्ति सही समय पर सही निर्णय ले तो इन सब लुभावने वादा करने वाले लोगों से बच सकते हैं

  9. rakesh kanungo says:

    बहुत अच्छा ॣलेख ःहे

  10. mahesh jaiswal says:

    बहुत सुंदर पवन भाई

  11. Ajay Agrawal says:

    Bahut khub

  12. Aarti Agrawal says:

    जो कहा, बहुत खूब कहा.. पर जान कर भी उन्ही मे उलझते रहते है

  13. Parun Sharma says:

    Bahot khub

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