लाठी
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कोरोना की लुका-छुपी और ज़िन्दगी
19/08/2021

कोरोना श्रंखला 1

अपनी लंबी चुप्पी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. दरअसल दूसरी लहर के झंझावात में मैं भी इस तरह बेतरतीब हुआ कि अपने ब्लॉग की सुध ही नहीं रही. पर अब धीरे-धीरे खुलती आँखों के साथ पेश है ये कोरोना से संबंधित लेखों की ये श्रंखला! श्रंखला इसलिए कि विषय बड़ा वृहत है. इतना लिखना मेरे लिए जितना मुश्किल होगा, आपके लिए उसे पढ़ना उससे ज़्यादा मुश्किल होगा. इसलिए चलिए, इसकी भी आसान ईएमआई बना लेते हैं.

कोरोना… अब क्या कहें?

कोरोना के बारे में हर कोई इतना पढ़, सुन, देख और सोच चुका है कि अब जैसे इसके बारे में बात करना ही बेमानी हो गया है. पर बातों का क्या है, वो तो चलती रहती हैं, और चलनी भी चाहिए. आखिर इसका भी अपना आनंद है.

दूसरी लहर में  हमारी दुनिया में पिछले दो-ढाई सालों में जो हुआ, वो पहले शायद ही कभी हुआ हो. एक संक्रामक बीमारी… कोरोना… इसने सब कुछ तो नहीं, पर बहुत कुछ बदल के रख दिया है. पर इस बदलाव में अच्छा बहुत कम, और बुरा ज़्यादा है. हममें से कई ने अपने प्रियजनों को खोया. जो यह बीमारी होने के बाद भी बच गए, उनकी काफ़ी जमा-पूंजी खर्च हो गई, शरीर पर इस बीमारी और दवाईयों के दुष्प्रभाव अब तक बाकी हैं, और कब तक रहेंगे, किसी को नहीं पता. जिनको ये बीमारी हुई ही नहीं, वो भी इसके बुरे असर से बच नहीं सके… धंधे चौपट हो गए… तनख्वाहें आधी रह गई… क्या कुछ सोचकर रखा था, सब धरा का धरा रह गया! बहुत से लोग संक्रमण के भय और सोशल डिस्टेंसिंग के चक्कर में मानसिक रोगी भी हो गए.

अच्छे के नाम पर बस इतना हुआ कि हमारे लिए साफ़-सफ़ाई और भी महत्वपूर्ण बन गई. हम ‘बेसिक्स’ के साथ जीना सीख गए. बहुत सी फिजूलखर्ची दूर हो गई. पर ये सब भी अस्थाई सा लगता है. जैसे ही बीमारी का आतंक कम होता है, हम वापस अपने उसी ढर्रे पर आ जाते हैं.

कोरोना ने जिनको सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है, उनमें से एक है आपसी भरोसा. अब सभी शक के घेरे में हैं. कोई भी ‘गुनाहगार’ या ‘कातिल’ हो सकता है. हम सबसे डरने लगे हैं, सावधान रहने लगे हैं. हम खुद को मास्क और सैनिटाइज़र के पतले से आवरण में सुरक्षित रखने की कोशिश में लगे रहते हैं, जैसे सीता मैया ने एक पतले से तिनके की ओट में खुद को रावण से सुरक्षित रखा. उनके पास तो सतित्व का बल था, पर हमारा तो भगवान ही मालिक है.

एक दूसरे से मिलना, एक दूसरे के घर जाना, साथ खाना-पीना, गले मिलना, नाचना, मस्ती करना, सब छूट सा गया है. एक लहर जाती नहीं, कि दूसरी की खबरें आने लगती हैं. दो लहरों के बीच हम थोड़ा खुलकर साँस ले लेते हैं, अपनी मर्ज़ी से जी लेते हैं, बाज़ारों में खा-पी लेते हैं… एक छटपटाहट के साथ… जैसे कुछ वक्त बाद फिर उसी दम घोटती जेल में बंद होना है.

ये सब कब खत्म होगा, किसी को पता नहीं. वैक्सीन का लग जाना वैसा ही है, जैसे मझधार में डूबते हुए कोई लकड़ी का टुकड़ा हाथ लग गया हो. शायद वो हमें डूबने नहीं दे, पर इसके सहारे कब तक रहेंगे, हमें किनारा भी तो ढूँढना है, अपना टूटा आशियाना भी तो फिर बनाना है, अपनी ज़िन्दगी को फिर पटरी पर भी तो लाना है?

शेष जल्द ही…

2 Comments

  1. Sushil Kashyap says:

    बेहद सटीक और वास्तविक वर्णन किया है आपने। ऐसा लग रहा है मानो मेरे दिल की आवाज़ आपने सुनकर काग़ज़ पर उतार दी हो। अगले भाग का इंतज़ार रहेगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

    • Pawan says:

      आपने पसंद किया, इसके लिए धन्यवाद। मैंने तो बस जो मन में आया, लिख दिया था। अगला भाग जल्द ही आएगा।

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